कैसे लिखूँ कुछ
रोज़ सोचती हूँ
आज लिखूंगी कुछ
चाहे कविता
या कहानी
या कुछ और
पर लिखूंगी ज़रूर
कुछ नया
पर लिख नहीं पाती
ऐसा नहीं है ,कि
विचार कौंधते नहीं
कुछ मैं सोचती नहीं
पर हकीकत यह है कि
विचारों की जलधारा
इतनी तीव्र है ,कि
बहा ले जाती है
मेरे शब्दों को अपने साथ
जैसे
बहा ले गई मन्दाकिनी
कई लोगों को अपने साथ
उन लोगों के साथ
मर गए मेरे शब्द भी
बह गए विचारों की सुनामी में
दब गए आक्रोश के पहाड़ तले
दफ़न हो गए बेबसी की ज़मीन में
उन जिंदा लाशों की तरह
क्या पता
बाकी हों कुछ जिंदगियां
बाकी हों कुछ साँसें
जो सिसक रही हों
अब भी
किसी पहाड़ के तले
या
मलबे के ढेर के नीचे
उसी तरह
सिसक रहे हैं
मेरे शब्द भी
कैसे लिखूं कुछ ??
(नमिता राकेश )